Department of Pediatric Endocrinology
THE YOGIC INSIGHT
ISSN: 2582-9076
(A PEER REVIEWED REFEREED RESEARCH JOURNAL)
मनोकायिक व्याधिः सन्धिवात के प्रबन्धन में योग चिकित्सीय सिद्धान्त
JANMEJAY

Abstract

संसार में प्रत्येक व्यक्ति सुख एवं स्वास्थ्य की चाह रखता है और यह मनुष्य जीवन मन, शरीर, इन्द्रियाँ, आत्मा का संयोग है। जिसमें शरीर का आधार उसका कंकालीय (अस्थि) तन्त्र है तथा इस तन्त्र में अस्थियों की गति का माध्यम सन्धियाँ अर्थात जोड़ है। हमारी पेशियों एवं सन्धियों की शक्ति एवं गति के फलस्वरूप ही हम अपने कार्य करने में सक्षम होते हैं। अतः शरीरस्थ अस्थियों, जोड़ों/सन्धियों का स्वस्थ रहना अति आवश्यक है। जिसमें मनोकायिक तन्त्र एवं त्रिदोष सन्तुलन का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन हमारी विकृत जीवन शैली, त्रिदोष असन्तुलन अर्थात वात वृद्धि, योगाभ्यास की कमी, अपथ्य आहार, यूरिक एसिड़ वर्द्धक आहार, मादक पदार्थों के सेवन, रात्री जागरण, अनिद्रा, नकारात्मक भावनाओं इत्यादि मनोकायिक कारणों से मनोकायिक तन्त्र में गड़बड़ी से हमें अनेक मनोकायिक व्याधियाँ उत्पन्न होती है। ठीक इसी प्रकार मनोकायिक तन्त्र की विकृति से ही कंकालीय तन्त्र में विकृति उत्पन्न होती है, जिसके दुष्परिणाम स्वरूप मनोकायिक व्याधि-सन्धिवात उत्पन्न होती है। जिसके कारण सन्धियों में वेदना, शोथ, जड़ता, कम्पन्न आदि होते हैं तथा उसका शरीर उसे भार लगने लगता है। वह अपने आपको असहाय महसूस करता है। अतः योग चिकित्सा के द्वारा मनोकायिक तन्त्र को मजबूत एवं सन्तुलित कर स्वयं को मनोकायिक रूप से स्वस्थ बनाया जा सकता है। जिससे वात वृद्धि का निवारण अर्थात त्रिदोष सन्तुलन होकर सन्धिवात जैसी मनोकायिक व्याधियों का प्रबन्धन योग चिकित्सा (यौगिक आहार, षटकर्म, यम-नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान इत्यादि) के माध्यम से हो सकता है। जिससे हमें सुस्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।

Keywords : मनोकायिक व्याधि, सन्धिवात, योग चिकित्सीय सिद्धान्त